फ़ासले रोज़ है पाटती ज़िन्दगी
भागती, दौड़ती, हाँफती ज़िन्दगी
पाप धोती है ये, मैल धोती है ये
है ये गंगा कभी ताप्ती ज़िन्दगी
धूपबत्ती के जैसी महकती हुई
है इबादत कभी आरती ज़िन्दगी
है कभी फूल सी मुस्कुराती हुई
है कभी ख़ार सी सालती ज़िन्दगी
जूझती है थपेड़ों से, दहशत के भी
थरथराती हुई कांपती ज़िन्दगी
बोझ धरती नहीं जिनका सह पाती है
किसलिए उनको है पालती ज़िन्दगी
मौत इक बार ही मारती है मगर
बारहा रोज़ है मारती ज़िन्दगी
ज़लज़ला हो कि तूफ़ान, सैलाब हो
है नहीं हार 'अनिल' मानती ज़िन्दगी