EARTH IS BEAUTIFUL

EARTH IS VERY BEAUTIFUL


Save the air, save the water, save the animals, save the plants.

These are necessary to save human being.

Save the art, save the culture, save the language.

These are necessary to the rise of human being.

Saturday, September 17, 2011

भागती, दौड़ती, हाँफती ज़िन्दगी



फ़ासले रोज़ है पाटती ज़िन्दगी
भागती, दौड़ती, हाँफती ज़िन्दगी
पाप धोती है ये, मैल धोती है ये 
है ये गंगा कभी ताप्ती ज़िन्दगी
धूपबत्ती के जैसी महकती हुई
है इबादत कभी आरती ज़िन्दगी
है कभी फूल सी मुस्कुराती हुई
है कभी ख़ार सी सालती ज़िन्दगी
जूझती है थपेड़ों से, दहशत के भी 
थरथराती हुई कांपती ज़िन्दगी
बोझ धरती नहीं जिनका सह पाती है
किसलिए उनको है पालती ज़िन्दगी
मौत इक बार ही मारती है मगर
बारहा रोज़ है मारती ज़िन्दगी
ज़लज़ला हो कि तूफ़ान, सैलाब हो
है नहीं हार 'अनिल' मानती ज़िन्दगी

Friday, September 16, 2011

दुनिया बड़ी अजीब है

देखी नहीं तो आज मेरे साथ चल के देख
दुनिया बड़ी अजीब है, घर से निकल के देख
निकला है तू बदलने को, दुनिया का रंगो रूप
खुद अपने आप को तो ज़रा सा बदल के देख
इक बार देख अपने गरेबां में झाँक कर
औरों की ख़ामियों को न इतना उछल के देख
तुझ पर भी जाँ लुटाने को परवाने आयेंगे
तू भी तो बनके  शमअ ऐ फ़रोज़ाँ, पिघल के देख
शिकवा न कर ज़माने की रफ़्तार का 'अनिल'
सांचे  में इस ज़माने के तू भी तो ढल के देख 

Sunday, August 7, 2011

खामोशी से देखता, सब नीला आकाश



डा. अनिल कुमार जैन 
माँ जाड़े की धूप है, माँ पीपल की छाँव /
लेती है जब गोद में, माँ बन जाती पाँव //
श्रीफल जैसे हैं पिता, माँ जैसे नवनीत /
गद्य पाठ लगते पिता, माँ लगती है गीत //
अपनी-अपनी रोटियाँ, सेंक रहे हैं लोग /
खुदगर्जी अब हो गई, जैसे छुतहा रोग //
जैसे- तैसे दिन कटा, कैसे काटें रात /
भूखी आँतें कर रहीं, नंगे तन से बात //
तेरी कथनी व्यर्थ की, मेरी बातें गूढ़ /
मैं बोलूँ तू सुन मुझे, मैं ज्ञानी तू मूढ़ //
मैं हीरा तू कांच है, ऊंचे बोलें बोल /      
अपने-अपने नाम के, पीट रहे सब ढोल //
लगता है अब हाथ से, निकल गई है बात
दरबारों में चल रहे, जूता, थप्पड़, लात //  
रहा चमकता उम्र भर, श्रम सीकर से भाल /
वृद्धावस्था हो गई, अब जी का जंजाल //
ढलता सूरज कह रहा, फिर आयेगी भोर /
समय इशारा  कर रहा, परिवर्तन की ओर //
कौन फंस गया जाल में, किसने फेंका पास /
खामोशी से देखता,  सब नीला आकाश //
('शब्द प्रवाह' अप्रेल-जून २०११ में प्रकाशित)
   
      

Sunday, May 15, 2011

फ़लक से आग बरसती है जल रहा है दिन

फ़लक से  आग  बरसती है  जल रहा  है दिन 
पसीना  बन के  बदन  पर पिघल रहा है दिन
 पिघलती  सड़कों पे  छाया हुआ  है सन्नाटा 
दहकती  आग  में  जैसे की  गल रहा है दिन 
बदन हैं  भीगे हुए ,  ख़ुश्क होंठ,  ख़ुश्क गले 
हर एक शख्स को,गर्मी का खल रहा है दिन 
सुकून  रात को मिल पायेगा, ये मुश्किल है 
लपट  बना के  हवाओं को  ढल रहा  है दिन
मगर मज़े हैं 'अनिल' गर्मियों के भी अपने 
लिए वो हाथ में शरबत,  मचल रहा है दिन  

Thursday, May 5, 2011

बिना उफ़ किये किस तरह रह रहे हो


समुन्दर  की  तुम  तो   सदा  तह  रहे   हो 
क्यूँ   दरिया  में  जज़्बात  के  बह  रहे  हो 
इरादे     थे     फौलाद      जैसे        तुम्हारे 
क्यूँ   बालू   की   दीवार    से  ढह  रहे   हो 
तुम्हीं    ने   बिगाड़ी   है   आदत    हमारी 
सुधरने   की   हम  से  तुम्हीं  कह  रहे हो 
हक़ीक़त  को   पहचानो  तुम  ज़िंदगी की 
यूँ  ख्वाबों  की  दुनिया  में  क्यूँ रह रहे हो 
अँधेरे   नगर    की     अंधेरी    गली    में 
बिना  उफ़  किये  किस  तरह  रह रहे हो 
ज़रूरी    है   जीना   ख़ुदी   बेचकर   क्या 
सितम सर झुका कर 'अनिल' सह रहे हो 
(परिधि 2011) 

मैं समझता हूँ तेरी मजबूरी

कीजिये   बात   दिल   लुभाने    की 
प्यार   के   गीत    गुनगुनाने     की 
चन्द    लम्हे   मिले   हैं  जी  लें हम 
छेड़   कुछ   बात    मुस्कुराने    की 
मैं    समझता   हूँ    तेरी    मजबूरी 
कुछ    ज़रुरत    नहीं    बहाने   की 
इश्क़  किस  कश्मकश  में लाया है 
हम  सुने  दिल  की  या ज़माने की 
जाँ  बदन  से   निकल   गई   जैसे 
बात  निकली  जो  उसके जाने की 
दिल है शीशे का तू न कर कोशिश 
प्यार  में  दिल  को आजमाने की 
ज़िक्रे उल्फ़त 'अनिल' ने छेड़ा तो 
बात   की  उसने   आबो  दाने  की 
(परिधि 2011) 

Thursday, April 28, 2011

इस सड़क से रोज़ इक दुनिया गुज़रती है




ज़ह्न  से  होकर   जब  इक  आँधी  गुज़रती है  
तब ग़ज़ल  या  नज़्म  कागज़ पर उतरती है 
बैठे-बैठे    सब     नज़ारा      देख    लेता    हूँ   
इस  सड़क  से  रोज़,  इक दुनिया गुज़रती है 
हर   घड़ी   यूं   टोकना   अच्छा   नहीं   होता 
इस  तरह  से  भी  कभी  आदत  सुधरती  है 
हाथ  रख  कर  हाथ   पर  बैठे  हुए  हो  क्यूं? 
कामचोरी   से  कभी  किस्मत   संवारती   है 
अस्ल   सोने    की   यही   तासीर    देखी   है 
आँच  पाकर   और  भी   सूरत  निखरती  है 
खुद ब खुद फ़न की ख़बर हो जाती है सबको  
जिस  तरह  से  फूल की  खुशबू बिखरती है 
हम भी होंगे एक, उनमें से 'अनिल' जिनको 
बाद  मर  जाने  के  दुनिया  याद  करती  है 
(नई ग़ज़ल में प्रकाशित )

Sunday, April 24, 2011

ये कैसा बचपन



पढ़ना-लिखना, खेलना, क्या जाने नादान||
गलियों -गलियों ढूँढता, जीने का सामान|| 

Sunday, March 20, 2011

My Photos




                                                                   God is watching  

                                                                       Life Partner 

                                                                     Jama Masjid Saugor


   

                                                    
                  





















         




                                                                          

Wednesday, March 9, 2011

आसमान भर धूप



धागा  लेकर  भाव   का,  गूंथे  शब्द   विचार .
गांठ   कल्पना  की  लगा , बना लिया है हार .
पेट  पीठ  से  लग गया ,  आँखों  में  हैं  प्रान
ऐसे  में  कैसे  रहे ,  पाप- पुन्य  का    ध्यान.
किसने मुझको क्या दिया,सबका रखूँ हिसाब.
मैंने किसको क्या दिया , इस का नहीं जवाब .
मर्यादा  को  तोड़  कर ,  जब  कर डाली भूल.
माथे  पर  चढने  लगी,   तब   पैरों  की  धूल.
मैली  चादर  ओढ़  कर ,  सर  पर  बांधी पाग .
बैठे बैठे  गिन   रहे ,   इक   दूजे   के   दाग .
ज्यों  का  त्यों  कैसे  रखे ,  कोई  अपना रूप .
मुठ्ठी  भर  छाया यहाँ ,  आसमान  भर धूप.
भरे  हुए  खलिहान में ,  लगी  हुयी  है  आग .
उसे  बुझाने  की  जगह ,  लोग  रहे  हैं  भाग .
बोली  अपनी  भूल कर ,  सभी  हो  गए मूक .
चला  शिकारी  हाथ  में ,  लेकर  जब बन्दूक .
सम्बन्धों  पर  जब  चढा , खुदगर्जी  का  रंग .
 पौधा  सूखा  प्रेम  का ,   मुरझाये   सब अंग .
खुशिओं  का  बाज़ार  है ,  पर  ऊंचे  हैं   दाम .
भाव  ताव  में हो गयी , इस जीवन की शाम
हम  से  तो  बच्चे  भले ,  हैं  आँखों  के   नूर .
छुपते  माँ   की गोद में ,  दुःख  हो  जाते  दूर .
कुदरत  ने  क्या  खूब  दी  , बच्चों को सौगात .
फूलों  सा  चहरा  दिया ,  दी   फूलों  सी  बात. 
अनिल कुमार जैन 

Saturday, February 26, 2011

बहुत याद आती है

माँ
तुम्हारी
बहुत याद आती है  
जब/ दोपहर को / आग उगलते 
सूरज के सामने 
आ जाता है 
कोई बादल का टुकड़ा 
माँ 
तुम्हारी
बहुत याद आती है 
जब/ गर्मी के मौसम के बाद 
पहली बरसात के साथ 
माटी की सौंधी महक लिए
ठंडी हवा/ तपते बदन को सहलाती है 
माँ 
तुम्हारी 
बहुत याद आती है 
जब 
देखता हूँ 
चूजे के मुंह  में 
दाना डालते हुए 
किसी चिड़िया को 
तब/ बहुत याद आती है तुम्हारी
माँ 
तुम्हारी 
बहुत याद आती है 
जब 
रात की तन्हाई में 
कोई सदाबहार गीत  
देने लगता है थपकियाँ 
मुंदने लगती हैं आँखें ...

 

Tuesday, February 22, 2011

Pati-patnee ko yek doosare kee kisee na kisee bat se samjhauta karte rahna padta hai, anyatha chupke se nark unke jeevan men pravesh kar jata hai.
                 Relationship of husband and wife requires compromise on one or other matter, otherwise hell stealthily enters into their life.


                 Gadha yek samajhdar janvar hai.
                 Donkey is a sensible creature.  


                 Har pati apnee patnee ko moorkh samajhta hai aur patnee apne pati ko maha moorkh samajhti hai.
                 Every husband feels that his wife is thick-headed and every wife feels that her husband is scattered-brained. 


                Aadmi ne apne chahre par kitne hee chahre kyon na chada rakhe hon, agar aap uske sampark men lamba samay bitate hain, to uska aslee chahra samne aa hee jata hai.
              No matter, any number of masks a person weals on his face, if you spend long time with him, his real face gets exposed.  


(TRANSLATED BY ADVOCATE VIKRANTA ) 

लघुकथा


शिकार
             बहुत देर से घात लगाये बैठी छिपकली ने आखिर टिड्डे को अपने मजबूत जबड़े में दबा ही लिया. फिर इत्मिनान से उसे निगल कर नया  शिकार खोजने लगी.  उसे पता ही नहीं चला की एक नौ इंच लम्बे कनखजूरे ने उसके गले के नीचे दंश मारा और इत्मिनान से उसे खाने लगा. भर पेट भोजन करने के बाद अपने ठिकाने की ओर रवाना हुआ ही था की एक विशाल मेंढक ने उसे चुटकिओं  में निगल लिया. मेंढक के मुंह का स्वाद अभी ख़त्म भी नहीं हुआ था  की वह एक सांप के मुंह में फंस चुका था. निगले हुए मेंढक को पचाने में शिथिल पड़े सांप के सर पर एक बड़े पक्षी की चोंच की ठोकर पड़ी और सांप उस पक्षी का आहार बन गया. वह पक्षी एक बहेलिये के तीर का निशाना बन कर जमीन पर लोट पोट हो गया . तभी झाड़ों     में छिपे बाघ ने बहेलिये पर हमला कर उसे अपना शिकर बना लिया. कुछ दिनों बाद जंगल में कुछ शिकारी आये और उन्होंने घेरा डाल कर बाघ को जंगल और जीवन से मुक्त कर दिया. जब शिकारियों  ने बाघ को मारा तब उनके पेट भरे हुए थे. यह चक्र सदियों से चल रहा है.

Bahut yad aatee hai 
Ma (mother)  
Tumharee bahut yad aatee hai 
Jab /dopahar ko / aag ugalte 
Sooraj ke samne / aa jata hai
Koi badal ka tukda 
Ma
Tumhari /  bahut yad aatee hai
Jab / garmee ke mausam ke bad 
Pahalee barish ke sath 
Matee kee saundhee mahak liye 
Thhandee hawa / tapte badan ko sahlatee hai 
Ma 
Tumharee bahut yad aatee hai 
Jab / dekhta hoon / chooje ke munh men 
Dana dalte huye / kisee chidia ko 
Tab / bahut yad aatee hai tumharee 
Ma
Tumharee/ bahut yad aatee hai 
Jab / rat kee tanhai men
Koi sadabahar geet 
Dene lagata hai thapkiyan 
Mundne lagatee hain aankhen ...
(Publishsd in Dainik Bhaskar Madhurima) 
1
सितारे   हैं   न     कोई    रौशनी   है

अँधेरी    रात   जैसी   ज़िन्दगी    है.

न जाने किस तरफ रुख मोड़ ले ये 
ज़माने  की  हवा कुछ  मन चली है 
नकाब  अब  किस  चहरे से उठेगा 
दिलों  में कितनों के ये खलबली है 
मसीबत  में   गरीबों  के  लिए  तो 
यहाँ  हर  शख्स  जैसे  अजनबी है.
न  पूछो  आम  इन्सां  की  कहानी 
वो  कल भी था परेशां  आज भी है.
यूँही  नाचा  नहीं   करते   खिलौने 
ये  उसके  हाथ  की  कारीगरी   है 
'अनिल' सच है जहाँ में आदमी की 
तबाही  का  सबब खुद  आदमी है
                  2
दिलों  में  खौफ़  है  कितना  न पूछिए  साहिब

की खुद ही लोगों ने लब अपने सी लिए साहिब 
रकीब    मैं  हूँ   मगर,  हो  गए   कई     घायल 
निशाना  बांध  के  पत्थर  को  फेंकिये  साहिब 
दुखों  से   आपके  बढ़  कर हैं  दुःख  जमाने में
कभी ज़मीन  की  जानिब  भी  देखिये  साहिब  
महक  है  फूल  में  ,  जैसे  तपन है  सूरज में 
खुदा  को  खुद  ही  में महसूस  कीजिये साहिब 
मिला  नसीब  से  घर  आपको   विरासत  में 
जला  के  अपने  ही घर को  न तापिये साहिब 
वो  जिनको  जान  से प्यारी है  अपनी खुद्दारी 
'अनिल'  को  आप उन्हीं में से मनिये साहिब
                             ३

गूंगे   बहरों   सदा   दूं,  तो  बता   क्या    होगा 
दर्द   पत्थर  को  सुना  दूं ,  तो बता क्या होगा 
उसने   चहरे   पे  कई   चहरे  लगा   रक्खे   हैं 
आइना  उसको  दिखा दूं  तो  बता  क्या  होगा 
आँख  पे  पर्दा  है  जिसके  गुरूर  का,    उसको 
चीर  के   सीना  दिखा  दूं  तो  बता  क्या  होगा 
बस यही  जान  ले,  उसकी  है पहुँच  ऊपर तक   
नाम  कातिल  का बता दूं, तो  बता  क्या होगा 
नाम   से  उसके  मुझे  जानते  हैं  लोग   सभी 
नाम  दिल  से  जो  मिटा दूं  तो बता क्या होगा 
इस ज़माने के धन्धकते हुए मौसम पे 'अनिल'
अश्क  दो   चार  बहा दूं   तो  बता   क्या  होगा. 
                     4
आपका प्यार क्या मिला मुझको 
जैसे  संसार  मिल  गया  मुझको 
इससे  पहले  की  हम भटक जाते 
आपका  साथ  मिल गया मुझको 
हो  गया   बादलों   सा  हल्का  मैं 
नर्म  हाथों  ने  जब  छुआ मुझको 
इन  हवाओं   में  आपकी   खुशबू 
देती   है  आपका    पता   मुझको 
आपकी  याद   कर    गई   बेखुद
लोग   पूछे  हैं क्या हुआ  मुझको 
आपने  मेरा  हमनशीं   बन  कर 
आसमां  पर  बिठा दिया मुझको 
डूबकर प्यार में 'अनिल' ने कहा 
ज़िन्दगी का मज़ा मिला मुझको 
                   5
अपनी   जेबें    भर    के     देख 
हरियाली   है    चर    के    देख 
पहले   ही    जैसी    है    आज
दुनिया  को मत   डर  के  देख 
तांका-झांकी   अब   तू    छोड़ 
मंज़र   अपने   घर   के   देख 
काग़ज़   के   घोड़ों   की   दौड़ 
चश्मा  नाक  पे  धर  के   देख 
डर मत, गर है मुश्किल काम 
हो   जायेगा    कर   के    देख 
छोड़ 'अनिल' अब  खोटे काम
बालों    को  तू  सर   के   देख    
('कशिश' काव्य संग्रह से )
                                1                       2
उठता  सवाल  दिल  में,  ये बार-बार क्यूं है 
कमज़ोर ही  यहाँ पर, बनता शिकार क्यूं है.
पूछा  हवा  से इक दिन, टूटी  सी झोपड़ी ने 
ऊंची  हवेलियों   में,   रहती  बहार  क्यूं   है
दिल  भीड़  में  हमेशा,  घबराता  है हमारा 
तनहाइयों में हमको, मिलता करार क्यूं है
पूछे  यतीम बच्चा, माँ-बाप  हो अगर तुम  
भगवान  घर तुम्हारा,  तारों के  पार क्यूं है
दुनिया का ढंग बदलने अवतार होगा कोई 
सदियों  से आदमी को,  ये इन्तज़ार  क्यूं है 
                          ३
कहने को  आसमान से,  आईं थीं बिजलियाँ  
हमको  पता है,  किसने जलाया था आशियाँ 
बहती  हवा के  साथ  न  बह  जाएँ   दूर  तक 
मांझी  ने  बांध  दी  हैं,   किनारे  पे  कश्तियाँ
बदहालियाँ, तबाहियां, आंसू, जिगर के  दाग़  
फिर  याद  आ  रहीं   हैं,  तेरी   महरबानियाँ 
माहिर हैं इल्मो-फ़न में   ये ममता की मूरतें 
रौनक भी घर की होती हैं प्यारी ये लड़कियां
अपनी  लकीर   उससे  बढ़ाने  की  फ़िक्र   में 
दिन-रात ढूंढता है  'अनिल' उसकी  ख़ामियाँ 
                                ४
दिल  के  मासूम  सवालात  से  डर  लगता  है 
दिल  में  उठते  हुए  जज़्बात से डर  लगता है
राहे-तारीक़    कहाँ    लेके       हमें      जायेगी 
हमको  बदले  हुए   हालत   से  डर  लगता  है 
आयेंगे,   आके  सितम   हम  पे   नया  ढाएँगे
हमको  आते  हुए   लम्हात  से  डर  लगता  है 
दिल में काँटे  हैं  उगे,  मुंह  में  ज़ुबां   फूलों  की 
ऐसे  लोगों  की  मुलाक़ात  से  डर   लगता   है
कांपने लगता है,  क्यूँ दिन के उजाले में बदन 
तुम तो कहते थे 'अनिल ' रात से डर लगता है 


                                         

Man itna vishal hai ki usmen poora brahmand sama jata hai aur phir bhi khali rah jata hai.
The mind is so gigantic that it embraces whole the universe and still it is unfilled.
Pap- Apne sukh ke liye kisee ko kasht pahuchana pap hai.
Sin-To hurt someone to our own benefit. 
Punya- Kisee ko sukh pahuchane ke liye swyam kasht uthana punya hai. 
 Vertue- To bear pain to make someone happy.