धागा लेकर भाव का, गूंथे शब्द विचार .
गांठ कल्पना की लगा , बना लिया है हार .
पेट पीठ से लग गया , आँखों में हैं प्रान
ऐसे में कैसे रहे , पाप- पुन्य का ध्यान.
किसने मुझको क्या दिया,सबका रखूँ हिसाब.
मैंने किसको क्या दिया , इस का नहीं जवाब .
मर्यादा को तोड़ कर , जब कर डाली भूल.
माथे पर चढने लगी, तब पैरों की धूल.
मैली चादर ओढ़ कर , सर पर बांधी पाग .
बैठे –बैठे गिन रहे , इक दूजे के दाग .
ज्यों का त्यों कैसे रखे , कोई अपना रूप .
मुठ्ठी भर छाया यहाँ , आसमान भर धूप.
भरे हुए खलिहान में , लगी हुयी है आग .
उसे बुझाने की जगह , लोग रहे हैं भाग .
बोली अपनी भूल कर , सभी हो गए मूक .
चला शिकारी हाथ में , लेकर जब बन्दूक .
सम्बन्धों पर जब चढा , खुदगर्जी का रंग .
पौधा सूखा प्रेम का , मुरझाये सब अंग .
खुशिओं का बाज़ार है , पर ऊंचे हैं दाम .
भाव – ताव में हो गयी , इस जीवन की शाम
हम से तो बच्चे भले , हैं आँखों के नूर .
छुपते माँ की गोद में , दुःख हो जाते दूर .
कुदरत ने क्या खूब दी , बच्चों को सौगात .
फूलों सा चहरा दिया , दी फूलों सी बात.
अनिल कुमार जैन
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