ज़ह्न से होकर जब इक आँधी गुज़रती है
तब ग़ज़ल या नज़्म कागज़ पर उतरती है
बैठे-बैठे सब नज़ारा देख लेता हूँ
इस सड़क से रोज़, इक दुनिया गुज़रती है
हर घड़ी यूं टोकना अच्छा नहीं होता
इस तरह से भी कभी आदत सुधरती है
हाथ रख कर हाथ पर बैठे हुए हो क्यूं?
कामचोरी से कभी किस्मत संवारती है
अस्ल सोने की यही तासीर देखी है
आँच पाकर और भी सूरत निखरती है
खुद ब खुद फ़न की ख़बर हो जाती है सबको
जिस तरह से फूल की खुशबू बिखरती है
हम भी होंगे एक, उनमें से 'अनिल' जिनको
बाद मर जाने के दुनिया याद करती है
(नई ग़ज़ल में प्रकाशित )
Excellent , very inspiring indeed !!
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