डा. अनिल कुमार जैन
माँ जाड़े की धूप है, माँ पीपल की छाँव /
लेती है जब गोद में, माँ बन जाती पाँव //
श्रीफल जैसे हैं पिता, माँ जैसे नवनीत /
गद्य पाठ लगते पिता, माँ लगती है गीत //
अपनी-अपनी रोटियाँ, सेंक रहे हैं लोग /
खुदगर्जी अब हो गई, जैसे छुतहा रोग //
जैसे- तैसे दिन कटा, कैसे काटें रात /
भूखी आँतें कर रहीं, नंगे तन से बात //
तेरी कथनी व्यर्थ की, मेरी बातें गूढ़ /
मैं बोलूँ तू सुन मुझे, मैं ज्ञानी तू मूढ़ //
मैं हीरा तू कांच है, ऊंचे बोलें बोल /
अपने-अपने नाम के, पीट रहे सब ढोल //
लगता है अब हाथ से, निकल गई है बात
दरबारों में चल रहे, जूता, थप्पड़, लात //
रहा चमकता उम्र भर, श्रम सीकर से भाल /
वृद्धावस्था हो गई, अब जी का जंजाल //
ढलता सूरज कह रहा, फिर आयेगी भोर /
समय इशारा कर रहा, परिवर्तन की ओर //
कौन फंस गया जाल में, किसने फेंका पास /
खामोशी से देखता, सब नीला आकाश //
('शब्द प्रवाह' अप्रेल-जून २०११ में प्रकाशित)