समुन्दर की तुम तो सदा तह रहे हो
क्यूँ दरिया में जज़्बात के बह रहे हो
इरादे थे फौलाद जैसे तुम्हारे
क्यूँ बालू की दीवार से ढह रहे हो
तुम्हीं ने बिगाड़ी है आदत हमारी
सुधरने की हम से तुम्हीं कह रहे हो
हक़ीक़त को पहचानो तुम ज़िंदगी की
यूँ ख्वाबों की दुनिया में क्यूँ रह रहे हो
अँधेरे नगर की अंधेरी गली में
बिना उफ़ किये किस तरह रह रहे हो
ज़रूरी है जीना ख़ुदी बेचकर क्या
सितम सर झुका कर 'अनिल' सह रहे हो
(परिधि 2011)
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