जाते-जाते साँस सच ये कह गयी
सिर्फ मिट्टी ही ज़मीं पर रह गयी
क़ैद में बिस्तर की जब से हो गया
जिंदगी इक बोझ बन कर रह गयी
याद की कश्ती थी बाकी ज़हन में
वक्त की मझधार में वो बह गयी
उम्र के झोंकों से लड़ कर जिंदगी
रेत की दीवार जैसी ढह गयी
भूख, ज़िल्लत, गालियाँ, रुसवाइयां
जिंदगी भी मार क्या-क्या सह गयी
देर तक सुनते रहे थे सब ‘अनिल’
बात फिर भी कहने को कुछ रह गयी
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